पन्ना धाय के बलिदान की कहानी

राजस्थान की धरती शुरू से ही वीरों की धरती के रूप में जानी जाती है। पुरूष ही नहीं यहां कि महिलाएं भी विश्वभर के लिए आदर्श हैं। मेवाड़ की धरती का जब-जब जिक्र होता है तब-तब पन्नाधाय को भी याद किया जाता है। जिसने राष्ट्रधर्म के लिए ऐसी मिसाल कायम की है जिसका विश्व में कोई उदाहरण ही नहीं है। तो आइए जानते हैं वीरांगना पन्नाधाय की सच्ची गाथा जो हर किसी में देशभक्ति को भर देने का जुनून रखती है।

जीवन का संक्षिप्त परिचय:

नाम:- वीरांगना पन्नाधाय।

पिता:- हरचंद जी हांकड़ा (गुर्जर)।

जन्म स्थान:- चित्तौड़गढ़ के समीप पाण्डोली गांव।

पति:- कमेरी गांव के चैहान गोत्रीय लालाजी गुर्जर के पुत्र श्री सूरजमल से पन्ना का विवाह हुआ। पन्ना का पति सूरजमल एक वीर सैनिक था और चित्तौड़ राज्य में सेवारत था। 

वंषज:- पन्ना का एकमात्र पुत्र चंदन था जिसकी बाल्यावस्था में ही बलि चढ़ाकर पन्ना ने मेवाड़ राज्य के कुलदीपक उदयसिंह की रक्षा की थी। 

अपना सर्वस्व लुटाने वाली वीरांगना पन्नाधाय किसी राजपरिवार से नहीं बल्कि एक गुर्जर परिवार से थी। उदयसिंह को दूध पिलाने के कारण इन्हें धाय मां कहा गया। जिसके बाद यह पन्नाधाय कहलाईं। बात उस समय की है जब चित्तौड़गढ़ का किला चारों ओर से आन्तरिक विरोध से घिरा हुआ था। मेवाड़ के भावी राणा उदयसिंह का बचपन गुजर रहा था। जिसे दूध पिलाने से लेकर पालने-पोसने का काम पन्नाधाय करती थीं। उसी समय उदयसिंह के घराने के ही बनवीर ने एक साजिश के तहत उदयसिंह के पिता महाराजा विक्रमादित्य की एक रात हत्या करवा दी और उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। इसी बीच उदयसिंह की माता ने अपनी खास दासी पन्नाधाय के हाथों में उदयसिंह को सौंप दिया और मेवाड़ के भावी राणा की रक्षा करते हुए कुम्भलगढ़ भिजवाने की बात कही।

पन्नाधाय ने चतुराई से उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुला दिया और उसे झूठी पत्तलों से ढक दिया ताकि किसी को इस टोकरी में बच्चा होने का अहसास तक न हो। इसके बाद एक खास सेवक के हाथों इस टोकरी को महल से बाहर भिजवा दिया। इसके बीच बनवीर के आने की सूचना पाकर उदयसिंह के स्थान पर पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। जब बनवीर ने आकर उदयसिंह के बारे में पूछा तो पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर इशारा किया। जिस पलंग पर कोई ओर नहीं बल्कि पन्नाधाय का पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना का इशारा मिलते ही उसी समय पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।

इस घटना को और दर्दभरा ये बात कर देती है कि पन्ना ने अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र की हत्या होते देखी और बनवीर को शक न हो इस कारण आवाज तक नहीं निकाली। बनवीर के लौट जाने के बाद पन्ना अपने पुत्र के शरीर को चूमकर उदयसिंह को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। इसके बाद पन्ना उदय सिंह को लेकर कुंभलगढ़ के जंगलों में भटकती रही और एक के बाद एक काफी संघर्षों का सामना किया। बाद में कुम्भलगढ़ में उसे शरण दे दी गई। लगभग तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपने राजा के रूप में स्वीकार किया। समय बीतने के साथ उदयसिंह 1542 में मेवाड़ के महाराणा बन गए। इसी बलिदान से पन्नाधाय का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो गया।

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