सुंधा माता का मंदिर काफी प्राचीन है। जालोर के शासक चाचिगदेव ने संवत् 1319 में अक्षय तृतीया को इस मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर में पहले देवी को शराब व बलि चढ़ाने की प्रथा थी, लेकिन 1976 में मालवाड़ा के पूर्व जागीरदार अर्जुनसिंह देवल ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर शराब अर्पण व बलि बंद करवा मंदिर में सात्विक पूजन पद्धति शुरू करवाई। इसके बाद ट्रस्ट ने प्रवेश द्वार, धर्मशालाओं, भोजनशालाओं का निर्माण करवाया।
राजस्थान के जालौर जिले की भीनमाल तहसील में जसवन्तपुरा से 12 कि.मी. दूर, दांतलावास गाँव के पास सुन्धानामक पहाड़ है। इसे संस्कृतसाहित्य में सौगन्धिक पर्वत, सुगन्धाद्रि, सुगन्धगिरि आदि नामों से कहा गया है। सुन्धापर्वत के शिखर पर स्थित चामुण्डामाता को पर्वतशिखर के नाम से सुन्धामाता ही कहा जाता है।
सिर सुंधा धड़ कोरटा, पग सुंदरला री पाल।
आप माता चामुण्डा इसरी, गले फूलां री माल॥
इसका अर्थ है माँ का सिर सुंधा पर, धड़ कोरटे तथा पग सुंदरला में पूजे जाते हैं।
देवी भागवत व तंत्र चूड़ामणि में ऐसी कथा आती है कि सत युग में एक समय दक्ष प्रजापति ने शिव से अपमानित होकर ब्राहस्पत्य नामक यज्ञ किया। जिसमें उसने शिव व सती को आमंत्रित नहीं किया। निमंत्रण न पाकर भी सती अपने पिता के यहां आ गई। घर आने पर भी दक्ष ने सती का सत्कार नहीं किया। अपितु क्रोध कर शिव की बुराई की। पति की निन्दा सती से सहन नहीं हुई और वे यज्ञ कुण्ड में कूद गई। इस पर शिव अपने वीर भद्रादि अनुचरों के साथ वहां पहुंचे, यज्ञ विध्वंस किया। उन्मत्त अवस्था में सती की मृत देह लेकर नाचने लगे तब विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के अंग-अंग को काट डाला। सती के अंग-प्रत्यग जहां-जहां गिर, वे सभी स्थान शक्तिपीठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुगन्धा नामक स्थान पर सती की नासिका गिरी। यह पौराणिक कथा संभवत: देवी के मात्र सिर पूजने की प्रथा का मूल कारण रही हो।
बकासुर का किया था सर्वनाश:
मां चामुंडा के मंदिर में आज भी एक शिवलिंग की पूजा होती है। वही बताया जाता है कि मां के मंदिर में एक सुरंग भी है,जो बहुत लंबी है। सुरंग को अभी आम भक्तों के लिए बंद कर दिया गया है। लोग कहते हैं कि उस सुरंग में सांप व अन्य जानवरों का घर है।
लेकिन अगर सुरंग के अंदर कुछ हिस्से को देखें तो देखा जा सकता है। वही कहते हैं कि राज परिवार यहां मां के दर्शन के लिए सुरंग के रास्ते से आया करते थे। मां चामुंडा के इतिहास के बारे में बताएं तो कहा जाता हैं कि बकासुर राक्षस का वध करने के लिए 7 शक्तियों ने एक साथ अवतार लिया था और बकासुर का वध किया था।
इस मंदिर के अंदर 3 ऐतिहासिक शिलालेख हैं. जो इस जगह के इतिहास के बारे में बताते हैं. यहां का पहला शिलालेख 1262 ईस्वी का है. जो चौहानों की जीत और परमार के पतन का वर्णन करता है. दूसरा शिलालेख 1326 और तीसरा 1727 का है. नवरात्रि के समय यहां पर मेले के आयोजन किया जाता है. इस दौरान गुजरात और आसपास के क्षेत्रों से पर्यटक बड़ी संख्या में सुंधा माता की यात्रा करते हैं. लेकिन इस बार कोरोना की वजह से मेले स्थगित कर दिए गए हैं.