अगरमहाराणा प्रताप का इतिहास याद करें और उसमें झाला मान या झाला मन्ना का जिक्र हो, यह संभव नहीं। खानवा के युद्ध में बाबर को लोहे के चने चबाने वाले राणा सांगा के एक सेनापति थे अज्जाजी। वे बड़ी सादड़ी के थे। वे 17 मार्च 1527 को इसी रणभूमि में सांगा को बचाते हुए बलिदान हुए। बलिदान का यह सिलसिला ऐसा चला कि महाराणा प्रताप और अज्जाजी के खानदान की विरासत एक साथ रही।
बहादुर शाह गुजराती ने 1535 में चित्ताैड़ पर हमला किया तो अज्जाजी के बेटे सिंहाजी ने 1535 में प्राण निछावर किए। यह महज संयाेग नहीं था। यह अज्जाजी के परिवार और संस्कारों का एक ऐसा जीवंत स्मारक था, जिसने आगे भी अपने बलिदानी कर्म से मेवाड़ को धरा को महकाने में कभी कमी नहीं रखी।
अकबर की सेना ने 1568 में आक्रमण किया तो अज्जा जी के पोते सुरताणसिंह जमकर लड़े और शहीद हुए। क्या कोई परिवार ऐसा हो सकता है, जो इस तरह बलिदानों को निरंतर रखे और युद्ध भूमि में अपने प्राणों की बलि देकर मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करे। जैसे-जैसे महाराणा परिवार का नेतृत्व बदलता गया, इस परिवार के बलिदानी भी तैयार होते रहे।
महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में उतरे तो झाला मान एक शूरवीर सेनापति के रूप में मौजूद थे। कहते हैं, विश्व में झाला को छोड़ ऐसा कोई राजवंश नहीं, जिसने अपने नरेश की रक्षा के लिए ढाल की तरह योगदान किया हो। झाला मान का एक नाम बीदा जी भी था।
नाथूसिंह महियारिया का एक दूहा है:
दीधाफिर देसी घणां, मालिक साथै प्रांण। चेटक पग दीधी जठै, सिर दीधौ मकवांण। यानी जहां चेतक ने सिर दिया, वहां झाला मान ने प्राण दिए। जहां औरों ने सिर्फ पैर दिए, वहां झाला ने प्राण देकर अपना सर्वस्व दिया।
मेवाड़ के शासकों पर जब-जब मौत का साया लहराता दिखा, उसे लपक कर अपनी मुट्ठी में बंद करने का जिस वंश ने लगातार सात पीढ़ियों तक इतिहास रचा, वह झाला राज वंश ही है। सच में मेवाड़ का इतिहास प्रताप की सेना के बहादुर सरदार झाला मानसिंह या मन्नाजी के बलिदान से महकता है। कहते हैं, झाला मान दिखने में प्रताप जैसे थे। ये झाला मान ही थे, जिन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप की सेना के पांव उखड़ते समय मुगल सैनिकों को घायल प्रताप पर आक्रमण के लिए आतुर भांप लिया था।
कहते हैं, हल्दीघाटी के युद्ध में जिस समय प्रताप ने अपने घोड़े चेतक को मानसिंह के हाथी पर चढ़ाया और अपने भाले का प्रहार किया तो मानसिंह तो बच गया, लेकिन महावत मारा गया। प्रताप को उसी समय चारों तरफ मुगल सैनिकों ने घेर लिया और जख्मी भी कर दिया। ऐसे में प्रताप का रणभूमि में ज्यादा समय टिके रहना खतरनाक हो सकता था, क्योंकि मुगल सेना का एकमात्र मकसद प्रताप को पकड़ना या माैत के घाट उतारना ही था। इसे प्रताप ने पूरा होने देने के लिए युद्ध की रणनीति बदली और झाला मान ने इसमें पूरा सहयोग किया। झाला ने प्रताप को बचाने के लिए राज्य छत्र, चंवर आदि उतार कर खुद धारण कर लिए। रणनीति समझ प्रताप चेतक पर सवार हो निर्जन स्थान की ओर निकल पड़े। राज चिह्नों से भ्रमित मुगल सेना झाला को प्रताप समझ उन पर टूट पड़ी।
नाथूसिंह ने आंखें भिगो देने वाले अंदाज में लिखा है:
राणगया गिरि ऊपरां, चेटक मोटै ठांण। मुगल गया कबरां महीं, सुरग गया मकवांण।।
श्यामनारायण पांडेय ने ठीक ही लिखा है:
तब तक झाला ने देख लिया, राणा प्रताप हैं संकट में। बोला ना बाल बांका होगा, जब तक है प्राण बचे घट में। अपनी तलवार दुधारी ले, भूखे नाहर सा टूट पड़ा। कल-कल मचा अचानक दल, अश्विन घन सा फूट पड़ा। रख लिया छत्र अपने सर पर, राणा प्रताप मस्तक से ले। ले स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर। स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर। स्वर्ण पताका जूझ पड़ा, रण भीम कला अंतक से ले। झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े थे झाला पर। मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर।
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