जोरजी चांपावत

जोरजी चांपावत कसारी गांव के थे,जो जायल से 10 किमी खाटू सान्जू रोड़ पर है। जहां जौरजी की छतरी भी है। एक दिन की बात है जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-95 ) नें विदेश से एक बन्दूक मंगाई और दरबार मे उसका बढ चढ कर वर्णन कर रहे थे। संयोग से जोरजी भी दरबार मे मौजूद थे। दरबार ने जोरजी से कहा-‘ देखो जोरजी, ये बन्दूक हाथी को मार सकती है।जोरजी ने कहा-‘इसमे कौनसी बड़ी बात है हाथी तो घास खाता है।’ दरबार ने फिर कहा- ‘ ये शेर को मार सकती है।जोरजी ने कहा-‘ शेर तो जानवर को खाता है।’ इस बात को लेकर जोरजी और जोधपुर दरबार मे कहा सुनी हो गयी।तब जोरजी ने कहा-‘ मेरे पास अगर मेरे मनपसंद का घोड़ा और हथियार हो तो मुझे कोई नही पकड सकता चाहे पूरा मारवाड़ पीछे हो जाय। तभी जोधपुर दरबार ने कहा-‘ आपको जो अच्छा लगे वो घोड़ा ले लो और ये बन्दुक ले लो।’ तभी जोरजी ने वहां से अपने मनपसंद का एक घोड़ा लिया और एक बन्दुक ले कर निकल गये और मारवाड़ मे जगह जगह डाका डालते रहे। इस प्रकार उन्होने जोधपुर दरबार के नाक मे दम कर दिया।

दरबार ने आस- पास की रियासतो से भी मदद ली पर जोरजी को कोई पकड़ नही पाये।तब ये दोहा प्रचलित हुआ- “चाम्पा थारी चाल औरा न आवे नी, बावन रजवाडा लार तू हाथ ना आवेनी।” फिर दरबार ने जोरजी पर इनाम रखा की जो उनको पकड़ के लायेगा उन्हे इनाम दिया जायेगा । इनाम के लालच मे आकर जोरजी के मौसी के बेटे भाई खेरवा ठाकर ने धोखे से जोरजी को खेरवा बुलाकर जोरजी को मार डाला। जोरजी ने मरते मरते ही खेरवा ठाकर को मार गिराया. जब जोधपुर दरबार को जोरजी की मौत के बारे मे पता चला तो बहुत तब वे बहुत दुखी हुए और बोले ऐसे शेर को तो जिन्दा पकड़ना था। ऐसे शेर देखने को कहा मिलते है। जोरजी बन्दूक और कटारी हर समय साथ रखते थे।जब खेरवा मे रात को वे सो रहे थे तब उन्होने अपनी बन्दुक को खूंटी मे टांग दिया और कटारी को तकिये के नीचे रखथ दिया। जब जोरजी को निन्द आ गयी तो खेरवा ठाकर ने बन्दुक को वहां से हटवा दी और जोरजी के घोड़े को गढ़ से बाहर निकाल कर दरवाजा बन्द कर दिया तो घोड़ा जोर जोर से हिनहिनाने लगा।

घोड़े की हिनहिनाहट सुनकर जोरजी को कुछ अनहोनी की आशंका हुई वो उठे और बन्दुक की तरफ लपके पर वहां बन्दुक नही थी। तभी जोरजी को पूरी कहानी समझ मे आ गयी ओर कटारी लेकर चौक मे आ गये और मार काट शुरू कर दी। देखते ही देखते उन्होने उन सैनिको को मार गिराया। खेरवा ठाकर ढ्योढी मे बैठा था, उसने वहां से गोली मारी।जिससे जोरजी घायल शेर की तरह उछल कर नीचे गिर पडे मगर वे अपने साथ ठाकर को भी ढ्योढी से नीचे मार गिराया और जोरजी घायल अवस्था मे अपने खुन से पिण्ड बना कर पिण्डदान करते करते प्राण त्याग दिये ।

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