करणी माता का इतिहास कथा

करणी माता का जन्म सं. 1444 में जोधपुर के सुआप नामक गांव में कीनिया शाखा के चारण मेहा के यहाँ माँ देवल की कोख से हुआ । इनका विवाह साठी निवासी देवाजी बिठू के साथ हुआ, पर ये सांसारिक कार्यों से विरक्त ही रही । करणी माता देश में चूहों की देवी के रूप में प्रसिद्ध है ।

इनका विवाह ‘साठीका गाँव’ के चारण बीठू केलु के पुत्र देपाजी बीठू से हुआ, किन्तु भोग-विलास से विरक्त होते हुए उन्होंने पति को समझाया और अपने पति का विवाह अपनी दूसरी बहिन गुलाब कुँवरी से करवाकर स्वयं देशनोक के समीप ‘जाँगव्ठू के बीड़/ नेहदी’ ( नेहडी उस खेजडी का नाम है जहाँ बैठकर करणी माता ‘विलोवणा/दही मंथन’ किया करती थी ) नामक स्थान पर रहने लगी । संवत् 1474 में बहन का विवाह देपाजी से करवा दिया। दो साल में उन्होंने साठिका का परित्याग कर दिया।

महानिर्वाण-

देशनोक से रवाना होकर जैसलमेर में अपनी आराध्या देवी आयड़ माता (तेमड़ाराय) के दर्शन कर करणी माता संवत् 1595 में धिनेरू तलाई पहुंचीं। यहां बीकानेर व जैसलमेर राजघराने के बीच युद्ध को शांत करने आई थीं। यहीं ज्वाला प्रकट कर करणी माता भौतिक शरीर से अदृश्य हो गईं। रिणमढ़ नाम से माता का मंदिर है।

करणी माता राठौडों (चारणों) की कुल देवी है । बीकानेर से 35 किलोमीटर दूर देशनोक में करणी माता का मंदिर है । देशनोक राष्ट्रीय राजमार्ग 89 पर स्थित है । करणी माता के मंदिर में सफेद चूहे काबा कहलाते है । चारण समाज के व्यक्ति इन चूहों को अपना पूर्वज मानते है । नवरात्रों में देशनोक में करणी माता का मेला लगता है । करणी माता ने जोधपुर-बीकानेर के राज्यों को स्थापित कराने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया । करणी माँ की गायों का ग्वाला दशरथ मेघवाल गायों की रक्षा करते हुए मरा था । गोधन पर आक्रमण करने वाले राव कान्हा का इन्होंने वध किया और भय के मारे मांग खाने वाले चारणों को इन्होंने चूहा बनने का शाप दिया । कहा जाता है कि करणी माता के मंदिर में चूहों की अधिकता इसी कारण है ।

इन्होंने देशनोक को अपना कार्यस्थल बनाया । करणीजी ने देशनोक की स्थापना स्वयं ने की थी । करणी माता के मंदिर के मुख्य दरवाजे के पास करणी माता के ग्वाले दशरथ मेघवाल का देवरा है । जिसके नजदीक ‘सावण-भादवा’ नामक दो बड़े कढाह रखे हुए है । जनश्रुति अनुसार, इन्होंचे अपनी बहन गुलाब कुँवरी के पुत्र लाखण जी को गोद लिया था लेकिन उसकी मृत्यु हो गई इस पर करणी माताजी ने उस को अपने बल से पुनर्जिवित कर दिया । महाराजा गंगासिंह ने करणी माता के मंदिर में चाँदी के किवाड़ भेंट किए थे । अलवर के बख्तावर सिंह ने माता के मंदिर में स्वर्ण पाट भेंट किए । माताजी का मंदिर ‘मठ’ माना जाता है । करणी माता का एक रूप ‘ सफेद चील ‘ भी है ।

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