जगदेव परमार मालवा के राजा उदयादित्य जी के पुत्र थे। बारहवीं शताब्दी में इस प्रदेश ने एक ऐसा अनुपम रत्न प्रदान किया जिसने वीरता और त्याग के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर क्षात्र धर्म को पुनः गौरवान्वित किया। वो वीर थे जगदेव परमार जी। लोक गाथाओं में इन्हें वीर जगदेव पंवार के नाम से याद किया जाता है।
राजा उदयादित्य की दो पत्नियाँ थी। एक सोलंकी क्षत्रिय (राजपूत) राजवंश की और दूसरी बाघेला क्षत्रिय (राजपूत) राजवंश की। सोलंकी रानी के जगदेव नाम का पुत्र और बाघेली रानी से दूसरा पुत्र रिणधवल परमार था। राजकुमार जगदेव जी उदयादित्य जी के बड़े पुत्र थे। राजकुमार जगदेव साहसी योद्धा थे और सेनापति के रूप में उनकी कीर्ति सारे देश में फैल गई थी। अपनी बाघेली रानी के प्रभाव से प्रभावित होकर उदयादित्य जी ने रिणधवल परमार को युवराज चुना। अपनी सौतेली माता की ईर्ष्या के कारण जगदेव कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे तो जगदेव जी मालवा से चले गये और जीविका के लिए गुजरात में सिद्धराज जयसिंह के अधीन सैनिक सेवा स्वीकार की। जगदेव परमार जी अपनी वीरता और स्वामीभक्ति से बहुत ही अल्पकाल में अपने स्वामी के प्रिय हो गये। कुछ आसन्न संकट के चलते सिद्धराज की सुरक्षा करने के लिए, जगदेव परमार ने कंकाळी (देवी) के सामने अपना मस्तक काट कर अर्पित कर दिया था, जिससे कंकाली देवी ने उनके बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया था। जगदेव ने यह बलिदान अपने स्वामी पर आए संकट के अवसर पर दिया था। जब राजा को उनके इस बलिदान का पता लगा तो सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर उनको एक बहुत बड़ी जागीर दी। और अपनी एक पुत्री का विवाह जगदेव के साथ कर दिया।
कुछ समय बाद जब जगदेव जी को यह सूचना मिली के सिद्धराज मालवा पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहा है तो जगदेव परमार जी ने अपना पद त्याग कर अपनी जन्मभूमि की रक्षा करने के लिए धारा नगरी चले आऐ, अपने वीर पुत्र को अपने राज्य में वापस लौटा देखकर पिता उदयादित्य ने उनका बड़े स्नेह से स्वागत किया और रिणधवल के स्थान पर जगदेव को अपना अगला उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उदयादित्य जी की मृत्यु के पश्चात् जगदेव जी मालवा के सिंहासन पर बैठे।
राजस्थान की लोक गाथाओं में उन्हें जगदेव पंवार के नाम से जानते है जबकि मालवा में लक्ष्मदेव के नाम से प्रसिद्ध हुये। जगदेव वि.सं. ११४३ (ई.स. १०८६) के लगभग मालवा के राजा बने। सिंहासन पर विराजमान होने के पश्चात अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने के लिए और अपनी राज्य के शत्रुऔं का विनाश करने के लिए जगदेव परमार जी एक बड़ी सेना लेकर दिग्विजय के लिए निकले और विजय अभियान पर निकलने के पश्चात जगदेव परमार जी ने सर्वप्रथम बंगाल के पाल शासक को रणभूमि में हराया, इसके बाद चेदी प्रदेश के कलचुरियों पर आक्रमण करने के लिए बढे। उस समय वहाँ यश:कर्ण का राज्य था। यश:कर्ण साहसी योद्धा था और चम्पारण विजय कर कीर्ति प्राप्त की थी। किन्तु यश:कर्ण मालवा सेना के आक्रमण के सामने अधिक समय नहीं ठहर सका। जगदेव परमार (लक्ष्मदेव) ने उसके राज्य को भी अपनी राज्य सीमाओ मे विलीन कर लिया उसके बाद जगदेव परमार जी (लक्ष्मणदेव परमार) अङ्ग और कलिंग राज्य की सेनाओं को परास्त किया।
जगदेव परमार जी ने दक्षिण भारतीय राज्यों पर भी आक्रमण किए थे। लेकिन दक्षिणी राज्यो में आपस में मैत्री होने से वह सफल न हो सके। उन दिनों मालवा के दक्षिण में चोलों का राज्य था। दोनों राज्यों के बीच बहुत कम दूरी रह गई थी। इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए दोनों ही राज्य लालायित थे अतः दोनों में युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया अतः इन्ही सीमा विस्तार को लेकर जगदेव परमार और चोल राजा कुलोतुंग प्रथम से संघर्ष हुआ किंतु चोल राजा कुलोतुंग युद्ध में अधिक समय तक जगदेव परमार जी के समक्ष ना ठहर पाया और चोल राजा कुलोतुंग भी पराजित हो गये।
गुजरात के सीमान्त पहाड़ी क्षेत्रों में उन दिनों बर्बर पहाड़ी जनजातियाँ निवास करती थी जो सन्त, पुण्यात्मा ऋषियों को निरन्तर दुःख देते थे। जगदेव परमार जी ने सन्त, पुण्यात्मा ऋषियों को भी उन बर्बर जातियों के अत्याचारो से निजात कराया था और उनके साथ साथ कांगड़ा जनपद के कीरों से युद्ध कर उन्हें भी परास्त किया। जगदेव परमार जी के समय में मुसलमान लुटेरोन ने भी मालवा पर चढ़ाई की। मुस्लिम सेना को कुछ प्रारम्भिक विजय प्राप्त हुई। किन्तु अंततः वे जगदेव द्वारा उन्हें युद्ध में हराकर वापस खदेड दिया गया। जगदेव (लक्ष्मदेव) एक वीर योद्धा और निपुण सेनानायक थे। पश्चिमी भारत के लोग अब भी जगदेव के नाम का उसकी उच्च सामरिक दक्षता व बलिदान के लिए हमेशा स्मरण करते हैं। एक उल्का की तरह वह थोड़े समय के लिए मध्यभारत के क्षितिज में चमके और अपने पीछे चिरकीर्ति छोड़ कर लोप हो गये। शासक के रूप में वह अत्यन्त दयालु, प्रजा वत्सल और न्यायकारी राजा थे। सम्राट विक्रमादित्य और राजा भोज की उदात्त परम्पराएं इन्होंने पुनः शुरु की। वेष बदल कर ये जनता की वास्तविक स्थिति का पता लगाने जाया करते थे। प्रजा की भलाई के अनेक कार्य किये। इनका शासन काल लगभग वि.सं. ११५२ (ई.स. १०९५) तक रहा।