सनातन धर्म और मारवाड़ के रक्षक,शत्रुओं के काल और क्षत्रिय राजपूत कुल की राठौड़ कुल के वीर शिरोमणि दुर्गादास जी राठौड़ की 303 वीं पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन जय जय राजपुताना आज भी मारवाड़ के गाँवों में बड़े-बूढ़े लोग बहू-बेटी को आशीर्वाद स्वरूप यही दो शब्द कहते हैं कि “माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश” अर्थात् हे माता! तू वीर दुर्गादास जैसा पुत्र जन्म दे जिसने मरुधरा (मारवाड़) को बिना किसी आधार के संगठन सूत्र में बांध कर रखा था। उस समय के विशाल मारवाड़ का कोई स्वामी, सामंत या सेनापति नहीं था। सब औरंगजेब के कुटिल विश्वासघात की भेंट चढ़ चुका था। जनता भी कठोर दमन चक्र में फंसी थी।
सर्वत्र आतंक लूट-खसोट, हिंसा और भय की विकराल काली घटा छाई थी। उस समय मारवाड़ ही नहीं पूरा भारत त्राहि-त्राहि कर रहा था। ऐसी संकटमय स्थिति में वीर दुर्गादास राठौर के पौरुष और पराक्रम की आंधी चली। मारवाड़ आजाद हुआ और खुले आकाश में सुख की सांस लेने लगा। दुर्गादास एक ऐसे देशभक्त का नाम है जिनका जन्म से मृत्यु पर्यंत संघर्ष का जीवन रहा। दुर्गादास का जन्म 13 अगस्त 1638 को जोधपुर रियासत के गाँव सालवां कलां में हुआ। जन्म से ही पिता का तिरस्कार मिला, माँ -बेटे को घर से निकाला गया और जिस अजीत सिंह को पाल पोसकर दुर्गादास ने मारवाड़ का राजा बनाया, उस अजीत सिंह ने भी इस वीर का सम्मान नहीं किया वरन् मारवाड़ से निष्कासित कर दिया।
पर धन्य है दुर्गादास की स्वराज्य भक्ति। मारवाड़ की मंगल कामना करते हुए दुर्गादास ने अवंतिकापुरी को प्रस्थान किया। और वहीं, क्षिप्रा नदी के तट पर अंत तक सन्यासीवत् जीवन व्यतीत किया। क्षिप्रा नदी के तट पर बनी दुर्गादास की छत्री (समाधि) गर्व के साथ आज भी उस महान पुरुष की वीरता और साहस की कहानी कह रही है। वह ऐसे कठोर तप की श्रेष्ठ कहानी है जो शिशु दुर्गादास व उसकी माँ को घर से निकालने से शुरू होती है। दुर्गादास को वीर दुर्गादास बनाने का श्रेय उसकी माँ मंगलावती को ही जाता है जिसने जन्मघुट्टी देते समय ही दुर्गादास को यह सीख दी थी कि “बेटा, मेरे धवल (उज्ज्वल सफेद) दूध पर कभी कायरता का काला दाग मत लगाना।”
मारवाड़ का रक्षक
जन्म से ही माँ के हाथ से निडरता की घुट्टी पीने वाला दुर्गादास अपनी इस जन्मजात निडरता के कारण ही महाराजा जसवंत सिंह का प्रमुख अंगरक्षक बन गया था और यही अंगरक्षक आगे चलकर उस समय संपूर्ण मारवाड़ का रक्षक बन गया था जब जोधपुर के महाराज जसवंत सिंह के इकलौते पुत्र पृथ्वीसिंह को औरंगजेब ने षड्यंत्र रचकर जहरीली पोशाक पहनाकर मार डाला।
इस आघात को जसवंत सिंह नहीं सह सके और स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इस अवसर का लाभ उठाते हुए औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा और देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के मारे शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। सारे हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया गया था। राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था।
संकट का सामना
ऐसे संकटकाल में दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी महामाया तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी राजा अजीत सिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। तो औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा। यही नहीं उसने दुर्गादास व अजीत सिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी।
इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीत सिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहाँ राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बरछी कराल-काल की भांति रणांगण में मुंडों का ढेर लगा देती थी।
पूरे परिवार का बलिदान
दुर्गादास के सामने समस्याएँ ही समस्याएँ थीं। सबसे बड़ी समस्या तो जहाँ भावी राजा के लालन-पालन व पढ़ाई-लिखाई की थी वहाँ उससे भी बड़ी समस्या उनको औरंगजेब की नजरों से बचाने व उनकी सुरक्षा की थी.. इतिहास साक्षी है कि दुर्गादास ने विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी वे संपूर्ण व्यवस्थाएँ पूर्ण की थीं कि भले ही इस कार्य के संपादन में दुर्गादास को अपने माँ -भाई-बहनों, यहाँ तक कि पत्नी तक का भी बलिदान देना पड़ा।
अरावली पर्वत श्रृंखला की वे कंदराएँ उन वीर और वीरांगनाओं के शौर्यपूर्ण बलिदान की साक्षियाँ दे रही हैं, जहाँ अजीत सिंह की सुरक्षा के बदले दुश्मनों से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपने आपको बलिदान कर दिया था।
कठोर ध्येय साधना
छप्पन के पहाड़ों का प्रत्येक पत्थर और घाटियाँ दुर्गादास के छापामार युद्ध की गौरवगाथा कह रहे हैं। जिन पत्थरों और घाटियों ने कर्मवीर दुर्गादास को देखा था, वे मानो आज भी बता रहे हैं कि दुर्गादास ने आंखों को नींद और घोड़े को विराम नहीं दिया।
वे राजपूतों को संगठित करने में 24 में से अठारह घंटे घोड़े की पीठ पर ही गुजार देते थे। वह भी एक-दो दिन या एक-दो माह नहीं, पूरे 20 वर्षों तक उनके जीवन का ऐसा कठोर क्रम बना रहा। उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियाँ सेंकते हुए दिखाया गया है। डा.नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य “दुर्गादास” नामक पुस्तक में इस घटना का चित्रण इस प्रकार किया है-
तखत औरंग झल आप सिकै,
सूर आसौत सिर सूर सिकै,
चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,
सैला असवारां अन्न सिकै।।
अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। आशकरण शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है यानी तप रहा है।
घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है। थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है।
न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की। घोड़े पर चढ़े हुए ही, भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं।
प्रतिज्ञा पूरी हुई
ऐसी कठोर ध्येय साधना करने वाले दुर्गादास ने अपना संपूर्ण यौवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित कर दिया था। अंतत: स्वतंत्रता देवी इस कर्मयोगी पर प्रसन्न हुई। जोधपुर के किले पर फिर केसरिया लहरा उठा था और दुर्गादास ने अपनी चिर प्रतीक्षित प्रतिज्ञा को स्व.महाराजा जसवंत सिंह के एकमात्र पुत्र अजीत सिंह का अपने हाथों से राजतिलक कर पूरा किया था।
दक्षिण में शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी से मिलकर और पंजाब के गुरुओं का आशीर्वाद लेकर संगठित रूप में परकीय सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना थी दुर्गादास की। परंतु औरंगजेब की पौत्री सिफतुन्निसा के प्रेम में पड़कर राजा अजीत सिंह ने अपने ही संरक्षक का निष्कासन करके इतिहास में काला धब्बा लगा दिया। पर धन्य है वीरवर दुर्गादास जिन्होंने उस वक्त भी अजीत सिंह को आशीर्वाद और मंगलकामना करते हुए ही वन की ओर प्रस्थान किया था।
उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर 22 नवम्बर 1718 को इस महान देशभक्त का निर्वाण हुआ। दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे परंतु उनके चरित्र की महत्ता इतनी ऊंची उठ गई थी कि वह कितने ही पृथ्वीपालों से भी ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया था-
धन धरती मरुधरा
धन पीली परभात।
जिण पल दुर्गो जलमियो
धन बा माँ झलरात।।
अर्थात् दुर्गादास तुम्हारे जन्म से मरुधरा धन्य हो गई। वह प्रभात पल धन्य हो गया और वह माँ झल रात भी धन्य हो गई जिस रात्रि में तुमने जन्म लिया।